tum prem ho tum preet ho lyrics in hindi तुम प्रेम हो, तुम प्रीत हो। मेरी बांसुरी का गीत हो. तुम प्रेम हो, तुम प्रीत हो। मनमीत हो, राधे, मेरी मनमीत हो. तुम प्रेम हो, तुम प्रीत हो। मनमीत हो, राधे, मेरी मनमीत हो. तुम प्रेम हो, तुम प्रीत हो। मेरी बांसुरी का गीत हो.… Read more: tum prem ho tum preet ho lyrics
Ve Kamleya Lyrics In Hindi वे कमलेया वे कमलेयावे कमलेया मेरे नादान दिलवे कमलेया वे कमलेयावे कमलेया मेरे नादान दिलदो नैनों के पेचीदा सौ गलियारेइनमें खो कर तू मिलता है कहाँतुझको अम्बर से पिंजरे ज्यादा प्यारेउड़ जा कहने सेसुनता भी तू है कहाँगल सुन ले आगल सुन ले आवे कमलेया मेरे नादान दिलवे कमलेया वे… Read more: Ve Kamleya Lyrics
सजा दो घर का गुलशन सा, अवध में राम आए हैं (Saja Do Ghar Ko Gulshan Sa Avadh Me Ram Aaye Hain Lyrics) सजा दो घर का गुलशन सा,अवध में राम आए हैं,सजा दो घर को गुलशन सा,अवध में राम आए हैं,अवध मे राम आए है,मेरे सरकार आए हैं,लगे कुटिया भी दुल्हन सी,अवध मे राम… Read more: Saja Do Ghar Ko Gulshan Sa Avadh Me Ram Aaye Hain Lyrics
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते । भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥
अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमालय शृङ्गनिजालय मध्यगते । मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥
अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते । निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥
अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते । दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥
अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे । दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥
अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते । शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥
धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके । कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥
सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते । धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदङ्ग निनादरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥
जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते । नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥
अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते । सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥
सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते । शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥
अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते । अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥
कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले । अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥
करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते । निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥
कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥
विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते । सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते । जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् । तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥
कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम् भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् । तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम् जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते । मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते । यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २१ ॥
Pada-Kamalam Karunnaa-Nilaye Varivasyati Yo-[A]nudinam Su-Shive Ayi Kamale Kamalaa-Nilaye Kamalaa-Nilayah Sa Katham Na Bhavet | Tava Padam-Eva Param-Padam-Ity-Anushiilayato Mama Kim Na Shive Jaya Jaya He Mahissaasura-Mardini Ramya-Kapardini Shaila-Sute || 18 ||
Kanaka-Lasat-Kala-Sindhu-Jalair-Anussinccati Te-Gunna-Rangga-Bhuvam Bhajati Sa Kim Na Shacii-Kuca-Kumbha-Tattii-Parirambha-Sukha-[A]nubhavam | Tava Carannam Sharannam Kara-Vaanni Nata-Amara-Vaanni Nivaasi Shivam Jaya Jaya He Mahissaasura-Mardini Ramya-Kapardini Shaila-Sute || 19 ||
Tava Vimale[a-I]ndu-Kulam Vadane[a-I]ndu-Malam Sakalam Nanu Kuula-Yate Kimu Puruhuuta-Purii-Indu Mukhii Sumukhiibhir-Asou Vimukhii-Kriyate | Mama Tu Matam Shiva-Naama-Dhane Bhavatii Krpayaa Kimuta Kriyate Jaya Jaya He Mahissaasura-Mardini Ramya-Kapardini Shaila-Sute || 20 ||
अयिगिरि का अर्थ है पर्वतराज कि पुत्री (गिरि का अर्थ है पर्वत) और नंदिनी का अर्थ है जो दुनिया को खुशी/आनंद देती है। यह दुर्गा अवतार में देवी पार्वती को संदर्भित करता है जिन्होंने महिषासुर राक्षस का वध किया था। यही कारण है कि उन्हें महिषासुर मर्दिनी भी कहा जाता है।
आईगिरी नंदिनी किसने लिखी है?
ऐगिरि नंदिनी की रचना आदि गुरु शंकराचार्य ने संस्कृत में की थी।
महिषासुर का क्या अर्थ है?
महिष शब्द का अर्थ है भैंसा और असुर का अर्थ है राक्षस। अतः महिषासुर का अर्थ भैंसा राक्षस है।
दुर्गा ने महिषासुर का वध कैसे किया?
महिषासुर एक राक्षस था जो जल्दी से अपना रूप बदल सकता था। उसे वरदान था कि वह कभी किसी मनुष्य के हाथों नहीं मारा जायेगा। जब इंद्र के नेतृत्व में भगवान और महिषासुर के नेतृत्व में राक्षसों के बीच युद्ध शुरू हुआ, तो देवता हार गए। निराश होकर देवताओं ने अपनी दिव्य शक्तियों को देवी दुर्गा में समाहित कर दिया। इसके बाद मां दुर्गा ने महिषासुर से 15 दिनों तक युद्ध किया और राक्षस महिषासुर का वध कर दिया।
एक प्रचलित लोककथा के अनुसार
यह स्तोत्र श्री आदि शंकराचार्य श्री मुख से गाया हुआ माँ भगवती का अत्यंत प्रिय स्तोत्र है। इसकी रचना उन्होंने स्वयं की थी।
इसकी उत्पत्ति के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है, जो आदि गुरु के जीवन की एक घटना से ली गई है।
एक बार वे अपने शिष्यों के साथ एक बहुत संकरी गली से स्नान के लिए मणिकर्णिका घाट जा रहे थे, मणिकर्णिका घाट एक श्मशान घाट भी है।
सड़क पर एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लेकर बैठी विलाप कर रही थी, सड़क संकरी होने के कारण शव को हटाना आवश्यक था, न कि उसे पार करना, सड़क पार करना, हमारे धर्म में किसी भी व्यक्ति को पार करना स्वयं भगवान को पार करना है, इसलिए यह बिल्कुल वर्जित है।
उनके शिष्यों ने महिला से अपने पति के शव को हटाने और रास्ता देने की प्रार्थना की, किंतु महिला ने उनकी बात सुनकर भी अनसुनी कर दी और सुने बिना ही रोती रही। तब आचार्य ने स्वयं उनसे शव हटाने का अनुरोध किया।
उनकी विनती सुनकर वह स्त्री कहने लगी- ‘हे महात्मा! आप बार-बार मुझसे इस शरीर को हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इसी शरीर को जाने के लिए क्यों नहीं कहते?’
यह सुनकर आचार्य ने कहा-हे देवी! शायद तुम शोक में यह भूल गयी हो कि शव में स्वयं हिलने-डुलने की शक्ति नहीं होती।’
स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया – ‘महात्मा, आपके अनुसार शक्तिहीन ब्रह्म ही संसार का कर्ता है। तो फिर इस शरीर को बिना शक्ति के हटाया क्यों नहीं जा सकता?’
उस स्त्री का इतना गंभीर, ज्ञानपूर्ण, रहस्यमय वाक्य सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए, उन्हें समाधि लग गई और समाधि में निमग्न होकर उन्होंने सारे रहस्य को समझ लिया।
सर्वत्र आद्या शक्ति महामाया लीला का विलास है। उनका हृदय अवर्णनीय आनंद से भर गया और मातृवंदन के शब्द उनके मुख से इस महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र के रूप में आविर्भूत होने लगे ।
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र के पाठ का बड़ा महत्व है |
इस स्तोत्र को बहुत शक्तिशाली माना जाता है, मान्यताओं के अनुसार इस स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के जीवन में आने वाली बाधाएंँ दूर हो जाती हैं।
यह भी माना जाता है कि जिसे शक्ति की इच्छा हो उसे इस स्तोत्र से मांँ भगवती की आराधना करनी चाहिए। इनकी पूजा करने से बड़े से बड़े दुःख भी तुरंत दूर हो जाते हैं।
वैसे तो हिंदू धर्मग्रंथों में मां की पूजा के कई तरीके बताए गए हैं, लेकिन उनमें से इस स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत कल्याणकारी माना गया है। आद्य शंकराचार्य स्वयं एक सिद्ध पुरुष थे और इस महान स्तोत्र में उनकी योग शक्ति का अलौकिक प्रभाव भी है जिससे यह अत्यधिक सकारात्मक ऊर्जा के साथ सक्रिय रूप से उत्तम प्रभाव को प्रदान करने वाला है।
शास्त्रों में कहा गया है कि जो व्यक्ति दिन में एक बार भी मां महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ करता है, उसके जीवन में कोई खतरा/भय नहीं रहता और वह कभी नरक नहीं जाता। अर्थात उसके जीवन का जीते जी ही कल्याण हो जाता है।
स्तोत्र के रचयिता आदि शंकराचार्य
आदि शंकराचार्य, जिन्हें अक्सर आदि शंकराचार्य के रूप में जाना जाता है, हिंदू दर्शन में एक मौलिक व्यक्ति थे और अद्वैत वेदांत के एक प्रमुख प्रस्तावक थे, जो हिंदू धर्म में वेदांत दर्शन के मुख्य उप-विद्यालयों में से एक है। अद्वैत वेदांत, जो वेदों के “गैर-द्वैतवादी निष्कर्ष” का अनुवाद करता है, दावा करता है कि सच्चा आत्म, आत्मा, उच्चतम आध्यात्मिक वास्तविकता, ब्रह्म के समान है।
आठवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास वर्तमान केरल, भारत में जन्मे, शंकर कम उम्र से ही अपनी विद्वता और आध्यात्मिक कौशल के लिए जाने जाते थे। उन्होंने उपनिषदों और अन्य हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन करते हुए एक भटकते भिक्षु बनने के लिए कम उम्र में अपना घर छोड़ दिया।
शंकर हिंदू दर्शन के विभिन्न ग्रंथों पर अपनी टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने उपनिषदों, भगवद गीता और ब्रह्म सूत्र पर व्यापक टिप्पणियाँ लिखीं। इन कार्यों का हिंदू दर्शन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है और पूरे भारत में अद्वैत वेदांत दर्शन को समझाने और फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
शंकर ने भारत के चार कोनों में चार मठों (मठों) की भी स्थापना की, जिससे अद्वैत वेदांत के ऐतिहासिक विकास, पुनरुद्धार और प्रसार में सहायता मिली। ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य की मृत्यु 32 वर्ष की आयु में हुई थी, फिर भी भारत की दार्शनिक परंपराओं और आध्यात्मिकता पर उनका प्रभाव बहुत अधिक है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आदि शंकराचार्य को आधुनिक शंकराचार्यों के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए, जो आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों के प्रमुख हैं और हिंदू धर्म के भीतर विभिन्न संप्रदायों के आध्यात्मिक नेता माने जाते हैं।
आदि शंकराचार्य ने अपने पूरे जीवन में पारंपरिक हिंदू मान्यताओं और प्रथाओं की रक्षा और पुनर्स्थापना का लक्ष्य रखा। उन्होंने कुछ विचारधाराओं की कर्मकांडीय प्रथाओं के विरुद्ध जमकर बहस की और अपने समय के दौरान लोकप्रिय विभिन्न धार्मिक मान्यताओं, जैसे बौद्ध धर्म और जैन धर्म की आलोचना कि और उनकी कमियों कि ओर ध्यान दिलाया।
उनके दर्शन का मुख्य पहलू, अद्वैत वेदांत, बौद्ध विचार और अन्य द्वैतवादी दर्शन के प्रभुत्व की प्रतिक्रिया थी जो परमात्मा और व्यक्तिगत स्व के बीच अंतर मानते थे। जवाब में, शंकर ने वास्तविकता का एक अद्वैतवादी (अद्वैत) दृष्टिकोण विकसित और प्रचारित किया, यह तर्क देते हुए कि व्यक्तिगत स्व और अंतिम वास्तविकता, या ब्रह्म, एक ही हैं।
इसे उपनिषदों के महान कथनों (महावाक्य) में से एक में संक्षेपित किया गया है: “तत् त्वम असि” या “आप वह हैं”, जिसमें “वह” ब्रह्म का संदर्भ देता है। शंकर के अनुसार, हमारे वास्तविक स्वरूप की अज्ञानता (अविद्या) दुख (संसार) का कारण है, और मुक्ति (मोक्ष) व्यक्तिगत स्व (आत्मान) और सार्वभौमिक स्व (ब्राह्मण) की एकता की प्राप्ति से प्राप्त होती है।
शंकर ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार करने के तरीकों में एक कई भजनों और ग्रंथों की रचना की थी जो आज भी हिंदू धार्मिक प्रथाओं में व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने विवेकचूड़ामणि (भेदभाव का शिखर रत्न), आध्यात्मिक पथ पर साधकों के लिए एक मैनुअल, और भज गोविंदम (गोविंदा की पूजा करें), एक लोकप्रिय भक्ति भजन की रचना की।
संक्षेप में, आदि शंकराचार्य को हिंदू दर्शन में एक महान व्यक्ति के रूप में सम्मानित किया जाता है। उनका अद्वैत वेदांत हिंदू धर्म में प्रमुख दार्शनिक विद्यालयों में से एक है, और उनकी शिक्षाएं दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रेरित और मार्गदर्शन करती रहती हैं। हिंदू धर्म को एकजुट करने और पुनर्जीवित करने के उनके प्रयासों का धर्म और समग्र रूप से भारतीय संस्कृति पर स्थायी प्रभाव पड़ा है।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी चाप्नुयात्प्रजाः ॥ ४ ॥
भक्तिमान् यस्सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥ ५ ॥
यशः प्राप्नोति विपुलं याति प्राधान्यमेव च ।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥ ६ ॥
न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति ।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ॥ ७ ॥
रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ ८ ॥
दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥ ९ ॥
वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥ १० ॥
न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥ ११ ॥
इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।
युज्येतात्मा सुखक्षान्ति श्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥ १२ ॥
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभामतिः ।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ १३ ॥
द्यौस्सचन्द्रार्कनक्षत्रं खं दिशो भूर्महोदधिः ।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥ १४ ॥
स सुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥ १५ ॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिस्सत्त्वं तेजो बलं धृतिः ।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥ १६ ॥
सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पितः ।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥ १७ ॥
ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥ १८ ॥
योगो ज्ञानं तथा साङ्ख्यं विद्याश्शिल्पादि कर्म च ।
वेदाश्शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ॥ १९ ॥
एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।
त्रीन्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥ २० ॥
इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् ।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥ २१ ॥
विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम् ।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥ २२ ॥
न ते यान्ति पराभवम् ओं नम इति ।
अर्जुन उवाच ।
पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम ।
भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन ॥ २३ ॥
श्री भगवानुवाच ।
यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव ।
सोऽहमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः ॥ २४ ॥
स्तुत एव न संशय ओं नम इति ।
व्यास उवाच ।
वासनाद्वासुदेवस्य वासितं ते जगत्त्रयम् ।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २५ ॥
श्री वासुदेव नमोऽस्तुत ओं नम इति ।
पार्वत्युवाच ।
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम् ।
पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ २६ ॥
ईश्वर उवाच ।
श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥ २७ ॥
श्रीरामनाम वरानन ओं नम इति ।
ब्रह्मोवाच ।
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये
सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते
सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः ॥ २८ ॥
सहस्रकोटीयुगधारिणे ओं नम इति ।
सञ्जय उवाच ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ २९ ॥
श्री भगवानुवाच ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ३० ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ३१ ॥
आर्ता विषण्णाश्शिथिलाश्च भीताः
घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।
सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रं
विमुक्तदुःखास्सुखिनो भवन्ति ॥ ३२ ॥
[** अधिकश्लोकाः –
यदक्षर पदभ्रष्टं मात्राहीनं तु यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव नारायण नमोऽस्तु ते ॥
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेस्स्वभावात् ।
करोमि यद्यत्सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयामि ॥
**]
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां अनुशासनपर्वान्तर्गत अनुशासनिकपर्वणि मोक्षधर्मे भीष्म युधिष्ठिर संवादे श्री विष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रम् नाम एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ।
इति श्रीविष्णुसहस्रनाम स्तोत्रम् ॥
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Vishnu Sahasranamam Stotram Lyrics 1000 Names
Vishnu Sahasranama Stotra or Venkateshwara Sahasra Namam Stothram is the devotional Vedic Hymns which explains the thousand (1000) names of Lord Vishnu. Vishnusahasranama Stotra is found in the 149th chapter Anushasanika Parvam of the Great Epic Mahabharatha. The famous warrior Bhishma Pitamaha teaches the Vishnu Sahasranama sloka to Yudishtra, the eldest of Pancha Pandavas.
There is another version of Vishnu Sahasranama Stotra found in the Padma Purana, one of the major eighteen Puranas. However, the Vishnu Sahasranamam found in the Mahabharatha is the most popular version.
Vishnu Sahasranamam Stotram Lyrics In English – 1000 Names of Vishnu
Aeshame Sarva Dharmanam Dharmadhika Tamo Matha, Yad Bhaktyo Pundarikaksham Stuvyr-Archanayr-Nara Sada, Paramam Yo Mahatteja, Paramam Yo Mahattapa Paramam Yo Mahad Brahma Paramam Ya Parayanam
Pavithranam Pavithram Yo Mangalanam Cha Mangalam, Dhaivatham Devathanam Cha Bhootanam Yo Vya Pitha Yatha Sarvani Bhoothani Bhavandyathi Yugagame Yasmincha Pralayam Yanthi Punareve Yuga Kshaye
Tasya Loka Pradhanasya Jagannatathasya Bhoopathe Vishno Nama Sahasram Me Srunu Papa Bhayapaham Yani Namani Gounani Vikhyatani Mahatmanah Rishibhih Parigeetani Tani Vakshyami Bhootaye
Namo Stvana-Ntaya Saha-Sramurtaye Saha-Srapaa-Dakshi Shiroru-Bahave Saha-Sranaamne Puru-Shaya Shashvate Saha-Srakoti-Yuga-Dharine Namah Saha-Srakoti Yuga-Dharina Om Nama Iti
श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का श्रद्धा भाव से किया गया पाठ अद्भुत शक्तियां प्रदान करता है !
श्री विष्णु सहस्रनाम की उत्पत्ति महाभारत से मानी जाती है, जब पितामह भीष्म, पांडवों से घिरे मृत्यु शैय्या पर अपनी मृत्यु का इंतजार कर रहे थे, उस समय युधिष्ठिर ने उनसे पूछा, ” हे पितामह ! कृपया हमें बताएं कि सभी के लिए सर्वोच्च आश्रय कौन है ? जिससे व्यक्ति को शांति प्राप्त हो सके, वह नाम कोनसा है जिससे इस भवसागर से मुक्ति प्राप्त हो सके, इस सवाल के जबाब में भीष्म ने कहा की वह नाम विष्णु सहस्रनाम है ।
यह नकारात्मक ज्योतिषीय प्रभावों को वश में करने में मदद करता है, इनमें उन दोषों को शामिल किया जाता है जो जन्म समय की ग्रहों की खराब स्थिति से उत्पन्न होते हैं, विष्णु सहस्त्रनाम दुर्भाग्य और श्राप से दूर कर सकता है । जो व्यक्ति विष्णु सहस्त्रनाम का जाप करता है उसका भाग्य हमेशा उसका साथ देता है ।
इसका मनोवैज्ञानिक लाभ भी है , दैनिक विष्णु सहस्रनाम का जप करते हुए मन को काफी आराम मिलता हैं और अवांछित चिंताओं और विचलित करने वाले विचारों से मुक्ति मिलती है, इससे मन में सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने और कुशलता सीखने की शक्ति प्राप्त होती है ।
श्री विष्णु सहस्त्रनाम अपने जीवन में बाधाओं को दूर करने का अंतिम उपाय है, यह आपके जीवन में मौजूद महत्वपूर्ण योजनाओं को तेज़ी से और आपके रास्ते पर बाधाओं और चुनौतियों को दूर करने में मदद कर सकता है, बढ़ती ऊर्जा स्तर और आत्मविश्वास के साथ, आप अपने जीवन के लक्ष्यों की ओर जल्दी और ऊर्जावान रूप से आगे बढ़ सकते हैं ।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार “आदित्य हृदय स्तोत्र” अगस्त्य ऋषि द्वारा भगवान् श्री राम को युद्ध में रावण पर विजय प्राप्ति हेतु दिया गया था. आदित्य हृदय स्तोत्र का नित्य पाठ जीवन के अनेक कष्टों का एकमात्र निवारण है. इसके नियमित पाठ से मानसिक कष्ट, हृदय रोग, तनाव, शत्रु कष्ट और असफलताओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है. इस स्तोत्र में सूर्य देव की निष्ठापूर्वक उपासना करते हुए उनसे विजयी मार्ग पर ले जाने का अनुरोध है. आदित्य हृदय स्तोत्र सभी प्रकार के पापों , कष्टों और शत्रुओं से मुक्ति कराने वाला, सर्व कल्याणकारी, आयु, उर्जा और प्रतिष्ठा बढाने वाला अति मंगलकारी विजय स्तोत्र है.
भावार्थ — श्री रामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे।।3।।
भावार्थ — सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।’
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्।।4।।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम्।।5।।
भावार्थ — इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है “ आदित्यहृदय स्तोत्र ” Aditya Hridaya Stotra। यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्ष्य और परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्।।6।।
भावार्थ — भगवान सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिमान्) हैं। ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन्), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं। तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन नाम मंत्रों के द्वारा) पूजन करो।
सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः।।7।।
भावार्थ — सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः।।8।।
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः।।9।।
भावार्थ — ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं।
भावार्थ — इन्हीं के नाम आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरने वाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान् (प्रकाशमान), सुर्वणसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले),
सहस्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू (कल्याण के उदगमस्थान), त्वष्टा (भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने वाले), अंशुमान (किरण धारण करने वाले), हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहरकर (दिनकर), रवि (सबकी स्तुति के पात्र),
अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्दस्वरूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार को नष्ट करने वाले), ऋग, यजुः और सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले),
विन्ध्यीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्रवेग से चलने वाले), आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरणसमूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्वस्वरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंगवाले),
सर्वभवोदभव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, नवग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं। इन सभी नामों से प्रसिद्ध हे सूर्यदेव ! आपको नमस्कार है।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः।।16।।
भावार्थ — पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः।।17।।
भावार्थ — आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है, आपको नमस्कार है।
नम: उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते।।18।।
भावार्थ — (परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर आपकी संज्ञा हैं, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥19॥
भावार्थ — आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर आपकी संज्ञा हैं, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः।।20।।
भावार्थ — आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।
तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे।।21।।
भावार्थ — आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः।।22।।
भावार्थ — रघुनन्दन ! ये भगवान सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं।
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्।।23।।
भावार्थ — ये सब भूतों में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः।।24।।
भावार्थ — (यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव।।25।।
भावार्थ — राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति।।26।।
भावार्थ — इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्।।27।।
भावार्थ — हे महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे।’ यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्।।28।।
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्।।29।।
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्।।30।।
भावार्थ — उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया।
इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथजी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया।
भावार्थ — उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा ‘रघुनन्दन ! अब जल्दी करो’।
आदित्य हृदय स्तोत्र से संबंधित प्रश्न तथा उनके उत्तर
प्र0–आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ कैसे करें ?
उ0– आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ रविवार (Sunday) के दिन प्रात:काल के समय करना उत्तम माना जाता है। सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नानादि से निवृत्त हो जाएं। साफ वस्त्र धारण करके तांबे के कलश में जल, रोली अथवा चंदन तथा लाल पुष्प डालकर सूर्य देव को अर्घ्य दें तत्पश्चात श्री आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें।
प्र0– क्या हम सूर्य ग्रहण के दौरान आदित्य हृदयम पढ़ सकते हैं?
उ0– मन्त्र साधना में ग्रहण काल में किये जाने वाले रहस्य पुरश्चरण का वर्णन है। ऐसा माना जाता है कि ग्रहण की इस अवधि के दौरान की गई कोई भी मंत्र साधना गिनती की संख्या सहित विस्तृत अनुष्ठानों में जाने की आवश्यकता के बिना फलित होती है। अत: इस अवधि में भी स्तोत्र पाठ किया जा सकता है।
॥इति॥
Aditya Hrudayam Lyrics in English
Aditya Hrudayam Stotram is a hymn addressed to the Sun God, Lord Surya Deva or Aditya. Lord Surya deva is also called Aditya, which literally means “Son of Aditi”. Aditya Hridaya stotra is about Lord Surya being the Primal force in the Universe. It is about Lord Surya or Aditya being the primal force in the entire universe, and it is also a lesson on how to defeat an enemy by worshipping Surya deva. When Lord Rama got tired in the battle, Sage Agastya came to the battlefield and preached Aditya Hrudayam to Lord Rama. After this teaching, Lord Rama kills Ravanasura. Aditya Hrudayam is found in the Yuddha kanda in the Valmiki Ramayana.
Meaning: Beholding Sri Rama, Rama being exhausted in the battle was absorbed in the deep thought in the battlefield by seeing Ravana in-front of Him, having appeared to fight, fully prepared for the war.
Daivataiśca samāgamya draṣṭumabhyāgato raṇam
upāgamyābravīdrāmamagastyo bhagavān ṛṣiḥ || 2
Meaning: The great and glorious Rishi, Sage Agastya, who had come in the company of Devas (Gods) to witness the encounter now spoke to Rama as follows:
Rāma rāma mahābāho śṛṇu guhyaṃ sanātanam
yena sarvānarīn vatsa samare vijayiṣyasi || 3
Meaning: O Rama, O Rama, O with mighty Arms; Listen carefully to this eternal secret by which, ‘O my child, you will be victorious against all enemies in the battle,
Adityahṛdayaṃ puṇyaṃ sarvaśatruvināśanam
jayāvahaṃ japennityam akṣayyaṃ paramaṃ śivam || 4
Meaning: Aditya Hridayam (Hymns of the Sun God), which is Sacred and Destroyer of all Enemies brings Victory if recited daily, you will be victorious and gain undecaying auspiciousness of the highest kind.
Sarvamaṅgalamāṅgalyaṃ sarvapāpapraṇāśanam
cintāśokapraśamanam āyurvardhanamuttamam || 5
Meaning: He is the bestower of all-round Welfare (Sarva Mangala Mangalyam), and the remover of all Sins (Sarva Papa Pranashanam), He heals the worries and griefs (Chinta Shoka Prashamanam) and increases the Life Span (Ayur Vardhanam Uttamam)
Meaning: The Sun is filled with Rays (Rashmimanta) and rises equally for all, spreading His illumination (Samudyanta); He is reverentially saluted by both the Devas and the Asuras (Deva Asura Namaskritam), The Sun is to be worshipped who shines forth (Vivasvanta) creating His own Light (Bhaskara), and who is the Lord of the Universe (Bhuvaneshwaram),
Sarvadevātmako hyeṣa tejasvī raśmibhāvanaḥ
eṣa devāsuragaṇām̐llokān pāti gabhastibhiḥ || 7
Meaning: He carries the essence of splendor of all the Devas (Sarva Deva Atmaka), and is filled with Fiery Energy (Tejasvi) which He manifests in His Rays (Rashmi Bhavana), He protects the Lokas of the Devas and Asuras by His Rays (filled with Tejas)
Meaning: He is Brahma, and He is Vishnu; He is Shiva and He is Skanda; He is Prajapati,
He is Mahendra (Indra Deva), He is Dhanada (God of Wealth), He is Kala (God of Time), He is Yama (God of Death), He is Soma (Moon God) and he indeed is the Lord of Water (Varuna Deva),
Pitaro vasavaḥ sādhyā hyaśvinau maruto manuḥ
vāyurvahniḥ prajāprāṇa ṛtukartā prabhākaraḥ || 9
Meaning: He indeed is the ancestor of all, including Vasus, Sadhyas, Ashwins, Maruts and Manu, He is the Wind (Vayu) and the Fire (Vahni) outside, and resides as the Prana of his offsprings inside; He is the creator of different Seasons (Ritus) and fills everything with Splendour,
ādityaḥ savitā sūryaḥ khagaḥ pūṣā gabhastimān
suvarṇasadṛśo bhānurhiraṇyaretā divākaraḥ ||10
Meaning: He is the son of Aditi, Savitha (bright), Soorya (supreme light), Khaga (bird, travels on the sky,), feeds the world by rain, gabhastiman (possessed of rays) Golden colored (beautiful, wise), always shining, he is the creator, the day starts with him).
Meaning: Thousands of Light Rays come out of Him like Reddish-Yellow Horses; His Seven Horses (Seven Colours of Light) producing the Light. He removes the Darkness and makes us Joyful; He floats in the Sky like a huge Bird (Martanda), the Bird of Light, the Bird which emits Light
Meaning: His Golden Womb (Hiranya Garbha) burns the Dew and making Light (Bhaskara) shines in the sky as the Sun (Ravi). The Womb of Fire (Agni Garbha) of the Son of Aditi sounds His Conch, which awakens us and destroys our Frigidity (Inertness).
Meaning: He is the lord of the space and ruler of the sky, dispeller of darkness, the knower of Rig, Yajur, and Sama (Vedas). He is the cause of Heavy Rains and is the friend of the Water; He crosses the Vindhya mountains by jumps (i.e. moves speedily across the Sky)
Meaning: He is a producer of heat, his form is circular, he is like an incarnation of Death (Mrityu), having Reddish Brown color and burning everything within it. He is a Poet who creates the World by supplying energy for activities; His great Fiery Energy, Red in color, gives rise to this entire Worldly Existence
Nakṣatragrahatārāṇāmadhipo viśvabhāvanaḥ
tejasāmapi tejasvī dvādaśātman namo’stu te || 15
Meaning: He is the presiding Deity of Constellations (Nakshatras), Planets (Graha) and Stars (Tara), and conceives the whole Universe in his mind. He has more Energy of Splendour (Tejas) than even the most Energetic; Salutations to You who has twelve Atmans (12 Adityas).
Namaḥ pūrvāya giraye paścimāyādraye namaḥ
jyotirgaṇānāṃ pataye dinādhipataye namaḥ || 16
Meaning: Salutations to him in the Eastern Mountains; Salutations to him in the Western Mountains. Salutations to the Lord of the group of Luminaries (Jyotirgana) and the Lord of the Day.
Jayāya jayabhadrāya haryaśvāya namo namaḥ
namo namaḥ sahasrāṃśo ādityāya namo namaḥ || 17
Meaning: Pray him who has green horses and the bestower of victory, auspiciousness and prosperity. He has thousand rays and who has power to attract all towards him).
Nama ugrāya vīrāya sāraṅgāya namo namaḥ
namaḥ padmaprabodhāya mārtāṇḍāya namo namaḥ || 18
Meaning: Salutations to him who is terrible and fierce one to the sinners, to him who is the hero (controlled senses); one who travels fast, Salutations to the one whose appearance makes the lotus blossom. Salutations to the son of Mrukanda Maharshi).
Meaning: Salutations to the Lord of Brahma, Shiva, and Vishnu, Salutations to Surya the sun god, who (by his power and effulgence) is both the illuminator and devourer of all and is of a form that is fierce like Rudra.
Tamoghnāya himaghnāya śatrughnāyāmitātmane
kṛtaghnaghnāya devāya jyotiṣāṃ pataye namaḥ || 20
Meaning: Salutations to the dispeller of darkness, the destroyer of cold, fog and snow, the exterminator of foes; the one whose extent is immeasurable. Salutations also to the annihilator of the ungrateful and to the Lord of all the stellar bodies, who is the first amongst all the lights of the Universe.
Taptacāmīkarābhāya vahnaye viśvakarmaṇe
namastamo’bhinighnāya rucaye lokasākṣiṇe || 21
Meaning: He who has the splendor of Molten Gold, Who is the Fire giving Energy for all the Activities of the World. Salutations to Him Who subdues the Darkness, Who has a Beautiful Splendour, and Who is the witness of the World.
Nāśayatyeṣa vai bhūtaṃ tadeva sṛjati prabhuḥ
pāyatyeṣa tapatyeṣa varṣatyeṣa gabhastibhiḥ || 22
Meaning: He indeed is the Lord Destroying the Beings, and He indeed is the Lord Creating the Beings. He drinks the waters with his rays, heats them up, and sends them down as rain again.
Eṣa supteṣu jāgarti bhūteṣu pariniṣṭhitaḥ
eṣa evāgnihotraṃ ca phalaṃ caivāgnihotriṇām || 23
Meaning: He who abides in the heart of all beings keeping awake when they are asleep. Verily he is the fruit of the Agnihotra which is sought after by the Agnihotrins (Performers of the Agnihotra).
Vedāśca kratavaścaiva kratūnāṃ phalameva ca
yāni kṛtyāni lokeṣu sarva eṣa raviḥ prabhuḥ || 24
Meaning: He indeed is the Vedic Sacrifice, and He indeed is the Fruit of those Sacrifices. Whatever works are to be performed in the World, He, the Ravi (Sun God) is the Lord of all those (Being the Power behind).
Enamāpatsu kṛcchreṣu kāntāreṣu bhayeṣu ca
kīrtayan puruṣaḥ kaścinnāvasīdati rāghava || 25
Meaning: Listen Oh Oh Raghava, scion of the Raghu dynasty, any person, singing the glories of Surya in great difficulties, during affliction, while lost in the wilderness, and when beset with fear, will not come to grief (or loose heart).
Pūjayasvainamekāgro devadevaṃ jagatpatim
etat triguṇitaṃ japtvā yuddheṣu vijayiṣyasi || 26
Meaning: By worshipping Him with one-pointed Devotion, by worshipping that Lord of the Devas Who is the Master of the Universe, by repeating Aditya Hridayam three times, You will be victorious in this Battle (O Rama),
Asmin kṣaṇe mahābāho rāvaṇaṃ tvaṃ vadhiṣyasi
evamuktvā tadāgastyo jagāma ca yathāgatam || 27
Meaning: O mighty-armed one, you shall triumph over Ravana this very moment. Having said thus, sage Agastya then went back in the manner he came
Etacchrutvā mahātejā naṣṭaśoko’bhavattadā
dhārayāmāsa suprīto rāghavaḥ prayatātmavān || 28
Meaning: Hearing Aditya Hridayam, the great warrior Sri Rama became free from all worries. Raghava, of Pious heart, then assumed a delightful appearance.
Adityaṃ prekṣya japtvā tu paraṃ harṣamavāptavān
trirācamya śucirbhūtvā dhanurādāya vīryavān || 29
Meaning: Looking at the Sun with devotion, and reciting Aditya Hridayam, Lord Rama became very Happy. Sipping Water three times and becoming purified, the valiant one, took up his Bow.
श्रावण मास में भोलेनाथ शंकर की सादगी का वर्णन करने से शिव प्रसन्न होते हैं। शिव के इस महिम्न स्तोत्रम् में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है। इस महिम्न स्तोत्र के पीछे अनूठी और सुंदर कथा प्रचलित है।
कथा
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था। वो परम शिव भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।
फिर एक दिन पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहे थे। उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया। मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए।
फिर क्या हुआ
बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्येक दिन पुष्प की चोरी करने लगा। इस रहस्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे। पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहे।
राजा ने निकाला समाधान: राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तिओं का क्षय हो गया। पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था। अपनी गलती का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुनः प्रदान किया।
शिव महिम्न स्तोत्रम् (अर्थ सहित )
Shiva Mahimna Stotram with hindi meaning
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः
हे हर !!! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं। मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना कर रहा हूं जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं। जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भी अपनी यथाशक्ति आपकी आराधना करता हूं।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि
स कस्य स्तोत्रव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः
हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन, ना ही वचन द्वारा ही संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात यह भी नहीं और वो भी नहीं… आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन कर सकता है? यह जानते हुए भी कि आप आदि व अंत रहित हैं परमात्मा का गुणगान कठिन है मैं आपकी वंदना करता हूं।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपनी सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना कर रहा हूं कि इससे मेरी वाणी शुद्ध होगी तथा मेरी बुद्धि का विकास होगा।
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु .
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः
हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं। तीनों वेद आपकी ही संहिता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे ही प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है।
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः
हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वह कहते हैं कि अगर कोई परम पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वह कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वह इस सृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं। वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता।
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे…
हे परमपिता !!! इस सृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)। इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? यह किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य यह है कि आप पर किसी प्रकार का संशय नहीं किया जा सकता।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।
विविध प्राणी सत्य तक पहुंचने के लिए विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार हर मार्ग आप तक ही पहुंचता है।
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् .
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति।
हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, कपाल एवं नाग्माला एवं भस्म मात्र है। अगर कोई संशय करें कि आप देवों के असीम ऐश्वर्य के स्त्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है आप इच्छा रहित हैं तथा स्वयं में ही स्थितप्रज्ञ रहते हैं।
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।
हे त्रिपुरहंता !!! इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है। अन्य इसे नित्यानित्य बताते हैं। इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुद्धि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ़ होती जा रही है।
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश:प्रत्येक दिशा में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाए। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।
हे त्रिपुरान्तक !!! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे। हे प्रभु! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, यह उसी भक्ति का प्रभाव था।
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः
हे शिव !!! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की। हे महादेव आपने अपने सहज पांव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया। फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा। वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः
हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन सका तथा तीनों लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर, आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है?
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुन्द्र मंथन किया। समुद्र से मूल्यवान वस्तुएं प्रकट हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बांट ली। पर जब समुद्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रकट हुआ तो असमय ही सृष्टि समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए। हे हर, तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया। वह विष आपके कंठ में निष्क्रिय हो कर पड़ा है। विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया। हे नीलकंठ, आश्चर्य है की यह स्थिति भी आपकी शोभा ही बढ़ाती है। कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है।
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव ही पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठ जनों के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता। हे नटराज !!! जब संसार कल्याण के हेतु आप तांडव करने लगते हैं तो आपके पांव के नीचे धरा कांप उठती है, आपके हाथों की परिधि से टकरा कर ग्रह-नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। विष्णु लोक भी हिल जाता है। आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है। आश्चर्य ही है हे महादेव कि अनेक बार कल्याणकारी कार्य भी भय उत्पन्न करते हैं।
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः
आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बीच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती हैं। पर य उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टिगोचर होती है। यह आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः हे शिव !!! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य-चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया। हे शम्भु, इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?
हरिस्ते सहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।
जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों एवं सहस्र नामों द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से हरी ने अपनी एक आंख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी यही अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म-फल का विधान बनाया। आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है। आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाए रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः हे प्रभु !!! यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है। दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए। फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ। आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के संदर्भ में क्यों न हो।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरूप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे। हे शंकर तब आपने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण लेकर ब्रह्मा की और कूच किया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भाग निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहधर्मिणी बनाया तो उन्हें आपके योगी होने पर शंका उत्पन्न हुई। यह शंका निर्मूल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिश की तो आपने काम को जला करा नष्ट करा दिया।
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि हे भोलेनाथ!!! आप श्मशान में रमण करते हैं, भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं। यह सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी आपके भक्तो को आप इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंददायी ही प्रतीत होते हैं क्योंकि हे शंकर आप मनोवांछित फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते।
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्
हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पद्धति को अपनाते हैं जैसे की सांस पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि। इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनंद, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वह वास्तव में आप ही हैं। हे महादेव!!!
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्
हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, मं जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजु), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुशुप्त), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता है। हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते
हे शिव, वेद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान। हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामों से स्तुति करता हूं।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः
हे त्रिलोचन, आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महाविशाल भी हैं तथा परमसूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी। आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभी कुछ से परे भी हैं।
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः
हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूं। हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूं। हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सभी का पालन करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं। हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूं।
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्
हे शिव आप गुणातीत हैं और आपका विस्तार नित बढ़ता ही जाता है। अपनी सीमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूं? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूं।
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति
”हे शिव, यदि नीले पर्वत को समुद्र में मिला कर स्याही तैयार की जाए, देवताओं के उद्यान के वृक्ष की शाखाओं को लेखनी बनाया जाए और पृथ्वीको कागद बनाकर भगवती शारदा देवी अर्थात सरस्वती देवी अनंतकाल तक लिखती रहें तब भी हे प्रभो! आपके गुणों का संपूर्ण व्याख्यान संभव नहीं होगा।”
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार
इस स्तोत्र की रचना पुष्पदंत गंधर्व ने चन्द्रमौलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है जो गुणातीत हैं।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च
जो भी इस स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है वह जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवतुल्य हो जाता है।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्
महेश से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरु से उपर कोई सत्य नहीं।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं
योगादिकाः क्रियाः
महिम्नस्तव पाठस्य कलां
नार्हन्ति षोडशीम्
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इस स्तोत्र के पाठ के सोलहवें अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते।
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः
कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चंद्रमौलेश्वर शिव जी का परम भक्त था। अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वह अपने दिव्य स्वरूप से वंचित हो गया तब उसने इस स्तोत्र की रचना कर शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्य स्वरूप को पुनः प्राप्त किया।
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्
जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाता है तथा ऋषि-मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परम सुख की प्राप्ति होती है।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः
ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पित है। प्रभु महादेव हमसे प्रसन्न हों।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर,
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः
हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप को नहीं जानता। हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता उसको नमस्कार है।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।
श्री पुष्पदन्त-मुख-पंकज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी को अत्यंत ही प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है।
।। इति श्री पुष्पदंत विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम्।।
अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |
अर्थ : ध्यान : जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं, बद्दपद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |
॥श्री राम रक्षा स्तोत्रम् ॥ Shri Ram Raksha Stotram॥
वामाङ्कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम् ॥
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥२॥
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥३॥
रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम् ।
शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥
जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥
करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥
सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत् ॥८॥
जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखान्तक: ।
पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥
एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत् ।
स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥१०॥
पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्मचारिण: ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् ।
य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥
आदिष्टवान् यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।
तथा लिखितवान् प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥
आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान् स न: प्रभु: ॥१६॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता ऋषि बुध कौशिक हैं, माता सीता और श्री रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, माता सीता शक्ति रूप हैं, हनुमान जी कीलक है तथा प्रभु रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र ( Ram Raksha Stotra)के जप में विनियोग किया जाता हैं |
॥ अथ ध्यानम् ॥
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ॥
वामाङ्कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम् ॥
ध्यान कीजिये :- प्रभु राम जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर बस्त्र पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं ।
उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |
॥ इति ध्यानम् ॥
चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥१॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: श्री रघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं | उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है |
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥२॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥३॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,
रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम् ।
शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें |
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |
जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |
करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |
सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत् ॥८॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |
जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखान्तक: ।
पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |
एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत् ।
स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥१०॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |
पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्मचारिण: ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |
जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् ।
य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |
वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम् ॥१४॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |
आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।
तथा लिखितवान् प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया |
आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान् स न: प्रभु: ॥१६॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को) और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं |
तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |
फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |
शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम् ।
रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |
संनद्ध: कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |
रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम,
वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।
जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का
इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्भक्त: श्रद्धयान्वित: ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ |
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |
श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |
माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम् ॥३१॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥३४॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥३५॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥३६॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: ‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |
रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम् ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ |
श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥
राम रक्षा स्तोत्र अर्थ: शिव पार्वती से बोले – हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान है | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीराम रक्षा स्तोत्र संपूर्णम् ॥
तंत्रोक्त देवी सूक्तम् : Tantroktam Devi Suktam Lyrics : Ya Devi Sarvbhuteshu
तंत्रोक्त देवी सूक्तम् अर्थ सहित
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥
भावार्थ : हे नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगल मयी हो। कल्याण दायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को) सिद्ध करने वाली हो। शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। हे नारायणी, तुम्हें नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु विद्या-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सब प्राणियों में विद्या के रूप में विराजमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है। मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
या देवी सर्वभूतेषु मातृ-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सभी प्राणियों में माता के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभि-धीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है। (चेतना – स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के तत्वों का बोध होने, उन्हें समझने तथा उनकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति)
या देवी सर्वभूतेषु दया-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सब प्राणियों में दया के रूप में विद्यमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी समस्त प्राणियों में भूख के रूप में विराजमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
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या देवी सर्वभूतेषु तृष्णा-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सभी प्राणियों में चाहत के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु शांति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी समस्त प्राणियों में शान्ति के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषू क्षान्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सब प्राणियों में सहनशीलता, क्षमा के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सभी प्राणियों में बुद्धि के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी समस्त प्राणियों में श्रद्धा, आदर, सम्मान के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु भक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सब प्राणियों में भक्ति, निष्ठा, अनुराग के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मी-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी, वैभव के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु स्मृती-रुपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : उस देवी को, जो सभी जीवों में स्मृति के रूप में निवास कर रही है,उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टि-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : जो देवी सब प्राणियों में सन्तुष्टि के रूप में विराजमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
देवी माँ दुर्गा की महिमा
देवी दुर्गा संपूर्ण सृष्टि की जननी हैं। तीन नेत्रों से संपन्न, इस ब्रह्मांड में विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए देवी माँ ने हजारों रूपों में अवतार लिया है देवी भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों काल का प्रतिनिधित्व करती हैं।
माता के कुछ सबसे महत्वपूर्ण कार्य राक्षसों का नाश करना और पवित्र लोगों की रक्षा करना है। वह उन जगहों पर रहती है जहां उनके नाम का जाप भक्ति और विश्वास के साथ किया जाता है।
देवी मंत्र हमारे जीवन के अंत को सुरक्षित करने के लिए मां दुर्गा का आशीर्वाद जीतने के लिए शक्तिशाली जप हैं। सफलता और समृद्धि के लिए देवी मंत्रों का जाप अति आवश्यक है।।
माँ दुर्गा सबसे शुभ हैं और सभी दुनिया को समृद्धि और शुभ का आशीर्वाद देती हैं।
पवित्र और पवित्र माँ उन लोगों की रक्षा करती है जो उसके सामने आत्मसमर्पण करते हैं और वह गौरी के रूप में अवतार लेने पर पर्वत राजा की बेटी हैं। हम दिव्य माता को नमन करते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
देवी दुर्गा सर्वव्यापी हैं। वह सार्वभौमिक मां की पहचान है। वह सभी प्राणियों में शक्ति, शांति और बुद्धि का अवतार है।
माना जाता है कि हजारों साल पहले, एक युवा महिला ने एक ही अहसास के बाद परमानंद में नृत्य करना शुरू कर दिया था जिसने उसके जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया: उसका जीवन अनंत चेतना से उत्पन्न हुआ जो निराकार और हर रूप में मौजूद है।
जो उभर कर आया वह उस चेतना की प्रशंसा में इस परमानंद की एक सहज अभिव्यक्ति थी जिसे आज हम ‘या देवी सर्व भुतेसु’ के नाम से जानते हैं।
संगीतकार ऋषि वाक ने मानव अस्तित्व के हर हिस्से पर कब्जा कर लिया है और इसका श्रेय देवी माँ को दिया है। ऋग्वेद में उत्पन्न होने वाला यह मंत्र दैनिक नवरात्रि की प्रार्थना और साधना का अंग बन गया है। सरल और गहरा।
प्राणियों में ऊर्जा स्फूर्ति, उल्लास व क्रियाशीलता बनकर परिलक्षित होता है दुर्गा मंत्र
अर्थात: यह अपने भीतर शक्ति के रूप में स्थित देवी की आराधना है। हमें अपने भीतर की शक्ति को पहचानना होगा और उसका सदुपयोग करना होगा।
शक्ति अथवा ऊर्जा प्रकृति के रूप में (बाहरी और हमारे भीतर की प्रकृति), उल्लास के रूप में, क्रियाशीलता के रूप में, प्रसन्नता आदि के रूप में अभिव्यक्त होती है। वासंतिक नवरात्रि का पदार्पण भी ऐसे समय में होता है, जब प्रकृति नई ऊर्जा से भरी होती है।
प्राणियों में भी यह ऊर्जा स्फूर्ति, उल्लास और क्रियाशीलता बनकर परिलक्षित होती है। लेकिन यदि हम उसे सकारात्मक रूप में क्रियान्वित नहीं कर पाते, तो शक्ति होने के बावजूद हाथियों की तरह निष्क्रिय होकर खूंटे से बंधे रहते हैं या फिर उस ऊर्जा को नकारात्मकता की ओर मोड़ देते हैं।
जिस शक्ति का उपयोग हम मदद में या सृजनात्मक कामों में कर सकते हैं, उसका उपयोग विध्वंसक कार्यों में करने लगते हैं। शक्ति के प्रवाह को सकारात्मकता की ओर लाने के लिए नौ दिन शक्ति की आराधना का प्रावधान किया गया होगा।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार, मां दुर्गा समस्त प्राणियों में चेतना, बुद्धि, स्मृति, धृति, शक्ति, शांति श्रद्धा, कांति, तुष्टि, दया आदि अनेक रूपों में स्थित हैं। अपने भीतर स्थित इन देवियों को जगाना हमें सकारात्मकता की ओर ले जाता है।
भगवान श्रीराम ने शक्ति की उपासना कर बलशाली रावण पर विजय पाई थी। जबकि ‘देवी पुराण’ में उल्लेख है कि रावण शिव के साथ-साथ शक्ति का भी आराधक था। उसने मां दुर्गा से बलशाली होने का वरदान पा रखा था।
लेकिन शक्ति ने राम का साथ दिया, क्योंकि रावण अपने भीतर सद्गुण रूपी देवियों को जगा नहीं पाया। तुष्टि, दया, शांति आदि के अभाव में उसका अहंकार प्रबल हो गया।
इसलिए देवी की आराधना का एक अर्थ यह भी है कि आप एक ऐसे इंसान बनें, जिसमें शक्ति के साथ- साथ करुणा, दया, चेतना, बुद्धि, तुष्टि आदि गुण भी हों। देवी के रूपों में मां दुर्गा को राक्षसों से संघर्ष करते हुए दिखाया
या देवी सर्वभूतेषु देवी मंत्र, माँ दुर्गा का प्रमुख मंत्र है, देवी लक्ष्मी, सरस्वती, काली और नौदेवी सभी माता दुर्गा का ही रूप है। इस मंत्र के द्वारा माता के सभी रूपों की पूजा व स्तुति की जाती है।
माँ दुर्गा ही जीवन, बुद्धि, शक्ति, धन, शांति इत्यादि सभी प्रदान करने वाली देवी है| इस मंत्र के द्वारा माता की स्तुति कर उनको प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर व्यक्ति एक सफल और समृद्ध जीवन जी सकता है|
इस मंत्र के नियमित पाठ से व्यक्ति अपनी सभी इच्छाओं को पूरा कर सकता है।
या देवी सर्वभूतु मंत्र देवी स्तुति का हिस्सा है, या देवी दुर्गा को नमस्कार है। मां दुर्गा की स्तुति करने वाला मंत्र मुक्तिदायक रचना है।
मंत्र जीवन के अस्तित्व के लिए सर्वव्यापी चेतना को धन्यवाद देता है।
यह दुर्गा मां का आह्वान करता है और बिना किसी बाधा के सकारात्मक जीवन जीने के लिए उनसे आशीर्वाद मांगता है।
मंत्र देवी के गहरे पहलुओं को दर्शाता है जो अक्सर छूट जाते हैं।
मंत्र के द्वारा हमें पता लगता है कि मां देवी सभी जगह विद्यमान है
सर्वव्यापी: देवी सभी में चेतना के रूप में मौजूद हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां देवी न हों।
सभी रूपों में: प्रकृति और उसकी विकृतियां सभी देवी के रूप हैं। सुंदरता, शांति सभी देवी के रूप हैं। क्रोध आए तो भी देवी हैं। तुम लड़ते हो तो वह भी देवी है।
प्राचीन और नवीन : हर क्षण चेतना के साथ जीवंत है। हमारी चेतना ‘निथ नूतन’ एक ही समय में प्राचीन और नई है। वस्तुएं या तो पुरानी हैं या नई, लेकिन प्रकृति में आप पुराने और नए को एक साथ विद्यमान पाएंगे।
सूरज पुराना भी है और नया भी। एक नदी में हर पल ताजा पानी बहता है, लेकिन फिर भी बहुत पुराना है। इसी तरह मानव जीवन बहुत प्राचीन है लेकिन साथ ही नया भी है। तुम्हारा मन वही है।
निम्न मंत्र से देवी दुर्गा का स्मरणकर प्रार्थना करने मात्र से देवी प्रसन्न होकर अपने भक्तों की इच्छापूर्ण करती हैं।
समस्त देव गण जिनकी स्तुति प्राथना करते हैं। माँ दुर्गा अपने भक्तो की रक्षा कर उन पर कृपा दृष्टी की वर्षा करती है और उसको उन्नती के शिखर पर जाने का मार्ग प्रसस्त करती हैं।
इस लिये ईश्वर में श्रद्धा विश्वास रखने वाले सभी मनुष्य को देवी की शरण में जाकर देवी से निर्मल हृदय से प्रार्थना करनी चाहिये।
या देवी सर्वभूतु मंत्र दुर्गा मां का आह्वान करता है जो बुराई का नाश करने वाली हैं और अपने भक्तों के दुखों को दूर करती हैं।
सभी प्रकार के भय और मानसिक कष्टों को दूर करता है और व्यक्ति को जीवन में सही निर्णय लेने में सक्षम बनाता है।
दुश्मनों और बुरी आत्माओं के डर को दूर करता है और घरों और व्यक्तियों के जीवन में समग्र शांति और समृद्धि को बढ़ावा देता है।
घर में सकारात्मक स्पंदन को बढ़ाता है और घर के सभी लोगों के जीवन में खुशी और सफलता को बढ़ावा देता है।घर में व्याप्त बुरी ऊर्जाओं को दूर करता है और घर के समग्र विकास के लिए सभी रूपों में शुभता को बढ़ावा देता है। किसी के मार्ग
में आने वाली बाधाओं को दूर करता है और सफलता लाता है।
मां दुर्गा के इन मंत्रों का जाप करने के लिए प्रातःकाल स्नान करने के बाद घर में बने पूजा स्थान पर बैठे. दीपक जलाएं और मां दुर्गा को नमन करते हुए किसी भी एक मंत्र का जाप 108 बार करें|
मान्यता है कि इन मंत्रों का जाप करने से मन को शांति मिलती है और दिमाग में कई ऊर्जा का संचार होता है. ऐसा कहा जाता है कि मां दुर्गा के इन मंत्रों का जाप नवरात्रि के अलावा बाकि दिनों में किया जाए तो मनुष्य के जीवन से सभी कष्ट मिट जाते हैं|
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Intelligence, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Sleep, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Hunger, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Shadow (of Higher Self), Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Power, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Thirst, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Forbearance, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Genus (Original Cause of Everything), Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Modesty, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Peace, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Faith, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Loveliness and Beauty, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Good Fortune, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Activity, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Memory, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Kindness, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Contentment, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Mother, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
To that Devi Who in All Beings is Abiding in the Form of Delusion, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
(Salutations) To that Devi Who Governs the Faculty of Senses of Beings in All the Worlds, Salutations to Her Who is the Devi Who Always Pervades all Beings.
(Salutations to Her) Who in the Form of Consciousness Pervades This Universe and Abides in It, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations to Her, Salutations again and again.
Yaha Bajrang Baan Jo Japai। Tehi Te Bhuta Preta Saba Kampe॥
Dhupa Deya Aru Japai Hamesha। Take Tana Nahin Rahe Kalesha॥
॥ Doha ॥
Prema Pratitin Kapi Bhajai, Sada Dharai Ura Dhyana।
Tehi Ke Karaja Sakala Shubha, Siddha Karai Hanuman॥
रचनाकार:
बजरंग बाण का श्रेय तुलसीदास जी को जाता है, जो 16वीं शताब्दी के एक महान कवि और संत थे। तुलसीदास जी ने हिंदी भाषा में रामायण का अद्भुत अनुवाद किया और भगवान हनुमान के गुणों और महिमा को प्रशंसा करने के लिए बजरंग बाण जैसी भक्तिसंबंधी रचनाएं भी लिखीं।
बजरंग बाण का पाठ भगवान हनुमान की पूजा, आराधना और स्तुति के रूप में बहुत प्रचलित है। इसे भगवान हनुमान के भक्त द्वारा नियमित रूप से पाठ किया जाता है और उन्हें अपने जीवन में साहस, स्थायित्व और आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति के लिए इसका महत्व माना जाता है।
तुलसीदास जी के द्वारा लिखी गई बजरंग बाण रचना भगवान हनुमान के गुणों, महिमा और शक्तिशाली स्वरूप को प्रशंसा करने का प्रयास है। यह पाठ करने से मान्यता है कि भक्त को भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त होती है और उनके सम्पूर्ण रक्षा, संरक्षण और सहायता की प्राप्ति होती है।
बजरंग बाण के पाठ से भक्त के मन में साहस, उत्साह, और आध्यात्मिक अभिवृद्धि की भावना जागृत होती है। यह प्रार्थना भगवान हनुमान के आशीर्वाद से विभिन्न भयों, बाधाओं और कष्टों का नाश करने में मदद करती है। इसके साथ ही, यह पाठ श्रद्धा और निरंतरता के साथ किया जाना चाहिए ताकि भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त हो सके।
यदि कोई व्यक्ति बजरंग बाण का पाठ करना चाहता है, तो वह इसे अपनी आध्यात्मिक साधना और नियमित पूजा का एक अभिन्न अंग मान सकता है। ध्यान देने योग्य है कि इसे सही उच्चारण और अच्छी आदत के साथ पाठ करना चाहिए। यदि व्यक्ति इसके विषय में
संदेह रखता है, तो वह एक ज्ञानी आध्यात्मिक गुरु की सलाह ले सकता है।
[मैं शिवलिंग को प्रणाम करता हूँ] जो ब्रह्मा, विष्णु और देवताओं द्वारा पूजित है, जो निर्मल, उज्जवल और शोभित (सुहावना) है। जो जन्म जन्मों के पापों का नाश करता है, मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ।
जो देवों और मुनिवरों द्वारा पूजा जाता है, जो सभी काम-इच्छा आदि का नाश करता है और करुणावान है। जिसने रावण के अहंकार का नाश किया था, मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ।
सर्व सुगन्धि सुलेपितलिङ्गं बुद्धिविवर्धन कारणलिङ्गम् । सिद्ध सुरासुर वन्दितलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्।3।
सभी प्रकार की सुगंधों से जिसका लेपन होता है, जो (आध्यात्मिक) बुद्धि और विवेक के उत्थान का कारण है। सिद्धों, देवता, असुरों सभी के द्वारा जिसकी वंदना की जाती है, मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ।
स्वर्ण और मणियों द्वारा जिसका श्रृंगार होता है, लिपटे सर्पों से जिसकी शोभा बढ़ जाती है। जिसने दक्ष के महायज्ञ का विनाश किया था, मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ।
जिस पर कुंकुम और चन्दन का लेपन होता है, जो कमलों के हार से सुशोभित होता है, जो सभी जन्मों के पापों का नाश करता है, मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ।
आठ पंखुड़ियों वाले फूलों से घिरा हुआ है, सम्पूर्ण सृष्टि की रचना जिससे आरम्भ हुई थी, जो आठ प्रकार के दारिद्र्य को दूर करने वाला है, मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ।
जो देवताओं के गुरु ( बृहस्पति ) द्वारा पूजित है, स्वर्ग के वन के फूलों द्वारा जिसकी पूजा-अर्चना होती है, जो श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ है और जो महानतम है, मैं उस शाश्वत शिवलिंग को प्रणाम करता हूं।
जो भी लिंगाष्टक को शिव के समीप बैठकर पढता है, वह अंत में शिवलोक को प्राप्त होकर शिव के साथ सुखी रहता है।
इस प्रकार लिंगाष्टकम पूरा हुआ।
लिंगाष्टक का महत्त्व-
शिव पूजा करते समय लिंगाष्टक का पाठ अत्यंत शुभ माना जाता है, श्रावण मास के समय लिंगाष्टक का पाठ करने से मन की असीम शान्ति प्राप्त होती है।
लिंगाष्टकम कथा:
किसी गांव में एक गरीब ब्राह्मण परिवार रहता था। उनका नाम धर्मदत्त था। वह और उनकी पत्नी विशेषा अत्यंत निष्ठावान थे और शिव के दीवाने थे। वे हमेशा ही अपने जीवन को शिव की भक्ति, ध्यान और पूजा में समर्पित रखते थे।
धर्मदत्त की आराधना की एक विशेषता थी। उन्होंने अपने घर में लिंग की मूर्ति अपनाई थी और रोज़ाना उसकी सेवा करते थे। उन्होंने शिव लिंग को अपना ईश्वर मान लिया था और उसे पूजा करके अपने जीवन को धन्य बना लिया था।
एक बार, गांव में अचानक एक महामारी फैल गई। बहुत से लोग बीमार पड़ गए और उनकी स्थिति गंभीर हो गई। धर्मदत्त की पत्नी विशेषा भी बीमार पड़ गई और उसकी स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। धर्मदत्त अत्यंत चिंतित हो गए और रो-रोकर शिव लिंग की आराधना करने लगे।
एक रात, जब धर्मदत्त शिव लिंग की सेवा कर रहे थे, एक देवी उनके सामने प्रकट हुई। वह देव अत्यंत सुंदर और प्रकाशमयी थी। धर्मदत्त को उनकी दिव्यता का अनुभव हुआ और उन्होंने उनकी पूजा की। देवी ने धर्मदत्त को वरदान दिया कि तुम्हारी पत्नी को विशेष चमत्कारिक औषधि मिलेगी और वह जल्द ही स्वस्थ हो जाएगी।
यह सुनकर धर्मदत्त अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने धन्यवाद देते हुए पूछा, “परमेश्वरी, आप कौन हो? कृपया अपनी पहचान बताइए।”
देवी ने उसे आश्चर्यजनक स्वर में जवाब दिया, “हे धर्मदत्त, मैं शिव की स्वयंभू मूर्ति हूँ। तुम्हारी पूजा और भक्ति ने मेरा हृदय प्रसन्न किया है। अब तुम्हारे सामर्थ्य से लिंगाष्टकम का पाठ करो और अपने पूर्वजों की दृष्टि में और दैवीय आशीर्वाद से शिव की अनंत कृपा को प्राप्त करो।”
इसके बाद से धर्मदत्त लिंगाष्टकम का नियमित पाठ करने लगे। वह गर्भवती विशेषा की बीमारी से मुक्त हो गई और स्वस्थ हो गई। धर्मदत्त और विशेषा का जीवन फिर से खुशहाल हो गया और उनका आत्मविश्वास और भक्ति और भी मजबूत हुए।
लिंगाष्टकम कथा हमें यह शिक्षा देती है कि शिव की आराधना, भक्ति और लिंगाष्टकम का पाठ हमें अपार शक्ति और आनंद प्रदान कर सकता है। यह हमें रोगों से मुक्ति, सुख, समृद्धि और मुक्ति की प्राप्ति में सहायता कर सकता है। इसलिए, हमें नियमित रूप से लिंगाष्टकम का पाठ करना चाहिए और शिव के प्रति हमारी आत्मीय भावना को प्रकट करना चाहिए। शिव की कृपा हमेशा हमारे साथ बनी रहे और हमें उच्चतम सच्चिदानंद स्थिति तक ले जाए।
धर्मदत्त और विशेषा जी के दिल में एक अद्भुत आनंद बस गया था। वे शिव की अनंत कृपा के आभास में जीवन जीने लगे। हर वक्त वे शिव की महिमा के गान में खो जाते थे, और उनकी आत्मा भक्ति के ऊर्ध्वमुखी हो गई।
एक दिन, धर्मदत्त ने अपने बच्चों को भी शिव की भक्ति के लिए प्रेरित किया। उन्होंने उन्हें लिंगाष्टकम का पाठ करने के महत्व के बारे में बताया और उन्हें यह सिखाया कि शिव की प्रसन्नता और कृपा प्राप्त करने के लिए वे भी इसे नियमित रूप से पढ़ें।
बच्चों ने आदेश ग्रहण करके लिंगाष्टकम का पाठ करना शुरू किया। उनकी खुशी और भक्ति की भावना देखकर धर्मदत्त का हृदय फूल गया। वे शिव की कृपा से अत्युच्च संतुष्ट हो गए क्योंकि अब वे जानते थे कि उनके पूरे परिवार को शिव की आशीर्वाद मिल रहा है।
सालों बीत गए, धर्मदत्त और उनका परिवार शिव की भक्ति में जीने का आनंद लेते रहे। उन्होंने जीवन के सभी कठिनाइयों को शिव के द्वारा पार कर लिया और उनकी आत्मा शिवत्व के साथ एकीकृत हो गई। वे शिव की कृपा, मार्गदर्शन और सहायता के लिए हमेशा आभारी रहें।
लिंगाष्टकम कथा हमें यह सिखाती है कि जब हम शिव की भक्ति, आदर्श और पूजा में समर्पित होते हैं, तो हमें उनकी अपार कृपा, सुख और संतोष प्राप्त होता है। यह कथा हमें यह दिखाती है कि जब हम शिव की प्रेम और भक्ति से ओतप्रोत होते हैं, तो हमारी आत्मा शिव के साथ मिल जाती है। वह हमें आंतरिक शांति, प्रबुद्धता और आनंद का अनुभव कराते हैं।
धर्मदत्त और उनके परिवार की जीवन यात्रा एक आदर्श बन गई है। उन्होंने अपने जीवन को शिव की सेवा और भक्ति में समर्पित किया है और उन्होंने शिव की कृपा के बहुमुखी लाभों को प्राप्त किया है। वे अब खुशहाल और समृद्ध जीवन जी रहे हैं और उनकी आत्मा शिव के दिव्य सन्देश के प्रकाश में चमक रही है।
इस कथा से हमें यह समझने को मिलता है कि हमारे जीवन में भगवान शिव की महिमा, आराधना और भक्ति का महत्व अपार है। हमें निरंतर उनके चरणों में ध्यान और पूजा करनी चाहिए और उनके शांतिपूर्ण आदर्शों का अनुसरण करना चाहिए। यह हमें अपार आनंद, स्वयंप्रकाश और उच्चतम सत्य के प्रतीक में बदल सकती है।
चाहे हम अपने जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आएं, हमें शिव की सच्ची भक्ति और निष्ठा से आगे बढ़ना चाहिए। हमें सदैव शिवत्व की अनुभूति और आत्मसात का अनुभव करना चाहिए, जो हमें जीवन के हर पहलू में सफलता और सुख प्रदान करेगा।
उनके बालों से बहने वाले जल से उनका कंठ पवित्र है, और उनके गले में सांप है जो हार की तरह लटका है, और डमरू से डमट् डमट् डमट् की ध्वनि निकल रही है, भगवान शिव शुभ तांडव नृत्य कर रहे हैं, वे हम सबको संपन्नता प्रदान करें।
मेरी शिव में गहरी रुचि है, जिनका सिर अलौकिक गंगा नदी की बहती लहरों की धाराओं से सुशोभित है, जो उनकी बालों की उलझी जटाओं की गहराई में उमड़ रही हैं? जिनके मस्तक की सतह पर चमकदार अग्नि प्रज्वलित है, और जो अपने सिर पर अर्ध-चंद्र का आभूषण पहने हैं।
मेरा मन भगवान शिव में अपनी खुशी खोजे, अद्भुत ब्रह्माण्ड के सारे प्राणी जिनके मन में मौजूद हैं, जिनकी अर्धांगिनी पर्वतराज की पुत्री पार्वती हैं, जो अपनी करुणा दृष्टि से असाधारण आपदा को नियंत्रित करते हैं, जो सर्वत्र व्याप्त है, और जो दिव्य लोकों को अपनी पोशाक की तरह धारण करते हैं।
मुझे भगवान शिव में अनोखा सुख मिले, जो सारे जीवन के रक्षक हैं, उनके रेंगते हुए सांप का फन लाल-भूरा है और मणि चमक रही है, ये दिशाओं की देवियों के सुंदर चेहरों पर विभिन्न रंग बिखेर रहा है, जो विशाल मदमस्त हाथी की खाल से बने जगमगाते दुशाले से ढंका है।
भगवान शिव हमें संपन्नता दें, जिनका मुकुट चंद्रमा है, जिनके बाल लाल नाग के हार से बंधे हैं, जिनका पायदान फूलों की धूल के बहने से गहरे रंग का हो गया है, जो इंद्र, विष्णु और अन्य देवताओं के सिर से गिरती है।
शिव के बालों की उलझी जटाओं से हम सिद्धि की दौलत प्राप्त करें, जिन्होंने कामदेव को अपने मस्तक पर जलने वाली अग्नि की चिनगारी से नष्ट किया था, जो सारे देवलोकों के स्वामियों द्वारा आदरणीय हैं, जो अर्ध-चंद्र से सुशोभित हैं।
मेरी रुचि भगवान शिव में है, जिनके तीन नेत्र हैं, जिन्होंने शक्तिशाली कामदेव को अग्नि को अर्पित कर दिया, उनके भीषण मस्तक की सतह डगद् डगद्… की घ्वनि से जलती है, वे ही एकमात्र कलाकार है जो पर्वतराज की पुत्री पार्वती के स्तन की नोक पर, सजावटी रेखाएं खींचने में निपुण हैं।
भगवान शिव हमें संपन्नता दें, वे ही पूरे संसार का भार उठाते हैं, जिनकी शोभा चंद्रमा है, जिनके पास अलौकिक गंगा नदी है, जिनकी गर्दन गला बादलों की पर्तों से ढंकी अमावस्या की अर्धरात्रि की तरह काली है।
मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनका कंठ मंदिरों की चमक से बंधा है, पूरे खिले नीले कमल के फूलों की गरिमा से लटकता हुआ, जो ब्रह्माण्ड की कालिमा सा दिखता है। जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया, जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया, जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं, और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।
मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनके चारों ओर मधुमक्खियां उड़ती रहती हैं शुभ कदंब के फूलों के सुंदर गुच्छे से आने वाली शहद की मधुर सुगंध के कारण, जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया, जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया, जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं, और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।
शिव, जिनका तांडव नृत्य नगाड़े की ढिमिड ढिमिड तेज आवाज श्रंखला के साथ लय में है, जिनके महान मस्तक पर अग्नि है, वो अग्नि फैल रही है नाग की सांस के कारण, गरिमामय आकाश में गोल-गोल घूमती हुई।
मैं भगवान सदाशिव की पूजा कब कर सकूंगा, शाश्वत शुभ देवता, जो रखते हैं सम्राटों और लोगों के प्रति समभाव दृष्टि, घास के तिनके और कमल के प्रति, मित्रों और शत्रुओं के प्रति, सर्वाधिक मूल्यवान रत्न और धूल के ढेर के प्रति, सांप और हार के प्रति और विश्व में विभिन्न रूपों के प्रति?
मैं कब प्रसन्न हो सकता हूं, अलौकिक नदी गंगा के निकट गुफा में रहते हुए, अपने हाथों को हर समय बांधकर अपने सिर पर रखे हुए, अपने दूषित विचारों को धोकर दूर करके, शिव मंत्र को बोलते हुए, महान मस्तक और जीवंत नेत्रों वाले भगवान को समर्पित?
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्। हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥
इस स्तोत्र को, जो भी पढ़ता है, याद करता है और सुनाता है, वह सदैव के लिए पवित्र हो जाता है और महान गुरु शिव की भक्ति पाता है। इस भक्ति के लिए कोई दूसरा मार्ग या उपाय नहीं है। बस शिव का विचार ही भ्रम को दूर कर देता है।
With his neck consecrated by the flow of water that flows from his hair, And on his neck a snake, which is hung like a garland, And the Damaru drum that emits the sound “Damat Damat Damat Damat”, Lord Shiva did the auspicious dance of Tandava. May he give prosperity to all of us.
Jata kata hasambhrama bhramanilimpanirjhari Vilolavichivalarai virajamanamurdhani Dhagadhagadhagajjva lalalata pattapavake Kishora chandrashekhare ratih pratikshanam mama
I have a deep interest in Shiva Whose head is glorified by the rows of moving waves of the celestial Ganga river, Which stir in the deep well of his hair in tangled locks. Who has the brilliant fire burning on the surface of his forehead, And who has the crescent moon as a jewel on his head.
May my mind seek happiness in Lord Shiva, In whose mind all the living beings of the glorious universe exist, Who is the companion of Parvati (daughter of the mountain king), Who controls unsurpassed adversity with his compassionate gaze, Which is all-pervading And who wears the Heavens as his raiment.
May I find wonderful pleasure in Lord Shiva, who is the advocate of all life, With his creeping snake with its reddish brown hood and the shine of its gem on it Spreading variegated colors on the beautiful faces of the Goddesses of the Directions, Which is covered by a shimmering shawl made from the skin of a huge, inebriated elephant.
May Lord Shiva give us prosperity, Who has the Moon as a crown, Whose hair is bound by the red snake-garland, Whose footrest is darkened by the flow of dust from flowers Which fall from the heads of all the gods – Indra, Vishnu and others.
May we obtain the riches of the Siddhis from the tangled strands Shiva’s hair, Who devoured the God of Love with the sparks of the fire that burns on his forehead, Which is revered by all the heavenly leaders, Which is beautiful with a crescent moon.
My interest is in Lord Shiva, who has three eyes, Who offered the powerful God of Love to fire. The terrible surface of his forehead burns with the sound “Dhagad, Dhagad …” He is the only artist expert in tracing decorative lines on the tips of the breasts of Parvati, the daughter of the mountain king.
May Lord Shiva give us prosperity, The one who bears the weight of this universe, Who is enchanting with the moon, Who has the celestial river Ganga Whose neck is dark as midnight on a new moon night, covered in layers of clouds.
I pray to Lord Shiva, whose neck is bound with the brightness of the temples hanging with the glory of fully bloomed blue lotus flowers, Which look like the blackness of the universe. Who is the slayer of Manmatha, who destroyed the Tripura, Who destroyed the bonds of worldly life, who destroyed the sacrifice, Who destroyed the demon Andhaka, who is the destroyer of the elephants, And who has overwhelmed the God of death, Yama.
I pray to Lord Siva, who has bees flying all around because of the sweet Scent of honey coming from the beautiful bouquet of auspicious Kadamba flowers, Who is the slayer of Manmatha, who destroyed the Tripura, Who destroyed the bonds of worldly life, who destroyed the sacrifice, Who destroyed the demon Andhaka, who is the destroyer of the elephants, And who has overwhelmed the God of death, Yama.
Shiva, whose dance of Tandava is in tune with the series of loud sounds of drum making the sound “Dhimid Dhimid”, Who has fire on his great forehead, the fire that is spreading out because of the breath of the snake, wandering in whirling motions in the glorious sky.
Drushadvichitratalpayor bhujanga mauktikasrajor Garishtharatnaloshthayoh suhrudvipakshapakshayoh Trushnaravindachakshushoh prajamahimahendrayoh Sama pravartayanmanah kada sadashivam bhaje
When will I be able to worship Lord Sadashiva, the eternally auspicious God, With equanimous vision towards people or emperors, Towards a blade of grass and a lotus, towards friends and enemies, Towards the most precious gem and a lump of dirt, Toward a snake or a garland and towards the varied forms of the world?
Kada nilimpanirjhari nikujnjakotare vasanh Vimuktadurmatih sada shirah sthamajnjalim vahanh Vimuktalolalochano lalamabhalalagnakah Shiveti mantramuchcharan sada sukhi bhavamyaham
When I can be happy, living in a cave near the celestial river Ganga, Bringing my hands clasped on my head all the time, With my impure thoughts washed away, uttering the mantra of Shiva, Devoted to the God with a glorious forehead and with vibrant eyes?
Imam hi nityameva muktamuttamottamam stavam Pathansmaran bruvannaro vishuddhimeti santatam Hare gurau subhaktimashu yati nanyatha gatim Vimohanam hi dehinam sushankarasya chintanam
Anyone who reads, remembers and recites this stotra as stated here Is purified forever and obtains devotion in the great Guru Shiva. For this devotion, there is no other way or refuge. Just the mere thought of Shiva removes the delusion.
शिव महिम्न स्तोत्र कथा:
एक बार की बात है, एक युवक था जिसका नाम वसुगुप्त था। वह बहुत ही आदर्शवान और धार्मिक जीवन जीने वाला था। वह शिव भक्त था और रोज़ाना शिव मंदिर जाकर पूजा करता था।
एक दिन वसुगुप्त ने विचार किया कि क्या वह शिव के लिए कुछ विशेष कर सकता है। उसने अपने गुरु से पूछा और गुरु ने उसे शिव महिम्न स्तोत्र के बारे में बताया। यह स्तोत्र शिव की महिमा और शक्ति का वर्णन करता है। गुरु ने वसुगुप्त से कहा कि वह इस स्तोत्र का पाठ करें और शिव की कृपा प्राप्त करें।
वसुगुप्त ने गुरु के कहे अनुसार रोज़ाना शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करना शुरू किया। वह इसे पूरे मन और श्रद्धा से पढ़ता था। धीरे-धीरे, वह अपने जीवन में शिव की प्रत्यक्षता को महसूस करने लगा।
जब वसुगुप्त शिव मंदिर जाता था, तो उसे ऐसा लगता था कि शिव मंदिर में वहीं विराजमान हैं और उसकी समस्त आराधनाएं शिव खुद कर रहे हैं। उसे अनु
भव होता था कि उसके आस-पास एक दिव्यता की वातावरण होती है और शिव की कृपा सदैव उसके साथ रहती है।
धीरे-धीरे वसुगुप्त की जीवन में सभी कठिनाइयां और संकट समाप्त हो गए। उसे सब प्रकार की सफलताएं प्राप्त होने लगीं और उसका आत्मविश्वास बढ़ गया। शिव महिम्न स्तोत्र के प्रतिदिनी पाठ से वह अपने जीवन को समृद्धि, शांति और सुख के साथ भर दिया।
इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि शिव महिम्न स्तोत्र के नियमित पाठ से हम अपने जीवन में शिव की कृपा और आशीर्वाद को प्राप्त कर सकते हैं। यह स्तोत्र हमें अंतरंग शांति, मन की स्थिरता और आत्मिक उन्नति प्रदान करता है। इसलिए, हमें नियमित रूप से शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करना चाहिए और शिव की अनन्य भक्ति के माध्यम से उसकी कृपा को प्राप्त करना चाहिए।
वसुगुप्त की इस स्तुति और शिव के प्रति उसका अटूट भक्तिभाव, उसे अपरिमित आनंद और आत्मतृप्ति की प्राप्ति करवाता था। उसके मन में शिव के प्रति गहरी आस्था और भक्ति की ज्योति प्रकट होती थी।
यह कथा हमें यह बताती है कि शिव की महिमा, शक्ति और सामर्थ्य को महसूस करने के लिए हमें उनकी भक्ति को सच्ची और पक्की करनी चाहिए। शिव महिम्न स्तोत्र के माध्यम से हम अपने आप को शिव के अद्भुत गुणों और दिव्यताओं के प्रति संवेदनशील बना सकते हैं। इसके द्वारा हम शिव के प्रति अपार श्रद्धा और समर्पण विकसित कर सकते हैं और उनके आदेशों का पालन करके उनकी कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार, वसुगुप्त ने शिव महिम्न स्तोत्र की मदद से अपने जीवन को प्रकाशमय और सुखमय बना लिया। वह अपने समस्त कर्तव्यों को ध्यान से निभाता था और समाज के लिए नेक कार्यों में लगा रहता था। उसकी आत्मा में शांति, प्रेम, त्याग और उदारता की प्रवृत्ति हो गई। वह सभी को ध्यान और
सहानुभूति से देखने लगा और उनकी सेवा करने का अवसर प्राप्त होता था।
इस रूप में, शिव महिम्न स्तोत्र ने वसुगुप्त की जीवन में बदलाव लाया और उसे अपने आप को अद्वितीय शिव से जुड़े हुए महसूस कराया। यह स्तोत्र हमें शिव की महानता, करुणा और अनंत शक्ति का अनुभव कराता है और हमें आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देता है। इसलिए, हमें नियमित रूप से शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करना चाहिए और अपने जीवन को शिव के दिव्य आदर्शों के अनुरूप बनाना चाहिए।
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Ve Kamleya Lyrics In Hindi वे कमलेया वे कमलेयावे कमलेया मेरे नादान दिलवे कमलेया वे कमलेयावे कमलेया मेरे नादान दिलदो नैनों के पेचीदा सौ गलियारेइनमें खो कर तू मिलता है कहाँतुझको अम्बर से पिंजरे ज्यादा प्यारेउड़ जा कहने सेसुनता भी तू है कहाँगल सुन ले आगल सुन ले आवे कमलेया मेरे नादान दिलवे कमलेया वे…